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अनुभूति में सत्येश भंडारी की
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अंधा बाँटे रेवड़ी
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"गाँधी का गुजरात" या "गुजरात का गाँधी"

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ज्योति पर्व-
क्यों कि आज दिवाली है

 

"गाँधी का गुजरात" या "गुजरात का गाँधी"

अपने जन्मदिन पर
स्वर्ग से झाँककर
बापू ने
अपनी कर्मभूमि
अपनी अहिंसा की रणभूमि को
हसरत भरी नजरों से देखा।
देखकर चक्कर से आये
मूर्छा छाने लगी
आँखों के आगे
अँधेरा छा गया।
दिख़ाई दिया उन्हें
अधजले टूटे फूटे घर
सड़कों पर
बिख़री जिन्दगियाँ
गोधरा का जला
रेल का डिब्बा
अक्षरधाम की दीवारों पर
बिखरे खून के धब्बे
वातावरण में गूँजती
चीखें और चीत्कारें।
कहीं दिशाभ्रम तो नहीं हो गया
गलत जगह को तो
गुजरात नहीं समझ लिया।
क्या यही है वह जगह
जहाँ अहिंसा को
परम धर्म माना जाता था।
साबरमती को
पराई पीर की समझ थी।
हिंसा दूर भागती थी
अहिंसा की छाया मात्र से।
एक सीत्कार सी उठी
अगर यही वह गुजरात है
तो मेरे दोस्तों
मेरे भाइयों
मेरे सहोदरों
मेरे देशवासियों
कृपा करों मुझपर
बन्द करों मुझे
"गुजरात का गाँधी" कहना।
एक और कृपा करों मुझपर
मेरे दिल पर
जो एक
बोझ पड़ गया है आज
हटा दो उसे।
बन्द करो इस धरती को
"गाँधी का गुजरात" कहना।

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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