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उसके पेड़ पहाड़
झर-झर हवा के झोंके
उसने गिनाये
पेड़ों के नाम
जिनसे हो कर आ रहे थे
रह-रह पहाडी हवाओं के झोंके
और बज रहे थे
सितार
एक साथ कई-कई
शांत सूनी पहाडी की
मनोरम कगार पर
हथेलियों की आड़ कर
उस ने कहा
सुनो
हमारा संगीत
हमारे पेड़-पहाड़ों का
हमारी हवाओं का,
वह समय था
कामनाओं के जागने का
सामने था
खड़ी चढ़ाई वाला कच्चा रास्ता
समय कहाँ था
कहीं ठहर कर
चढ़ती हुयी साँसों को
थोड़ी देर सम्हालने का
उसे अभी पहुँचना था
चौराहे वाले अड्डे पर
उधर से आने वाली
बस के निकलने से पहले ,
वह समय था
दिन भर के बाद
घर लौटने का,
ऐसे में
किसी बात के लिये
कहाँ हो सकती थी
कोई जगह...
२३ जुलाई २०१२
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