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रसमडा
मालूम नहीं कब की
दबी-छिपी इच्छा में दाखिल हुआ होगा
यह छोटा सा मैदानी रेलवे स्टेशन,
उतरती बारिश के
उमस भरे किसी एक दिन
यहाँ तुम्हारा होना
जब हरी-भरी धूप से लबालब
मुरुमी भाँठा वाले मैदान में
हरहरा कर फूल रहे होंगे
अनगिनत रंगों वाले सपने की तरह
तिरैय्या के जंगली फूल,
घोर आसक्तियों की स्वर-लिपि में बाँध कर
तरंगित हो रही होगी कोई जादुई धुन
तुम्हारे कैनवास पर उतर रहा होगा
किसी अलौकिक सुख सा
वह संधि - काल का स्पंदन,
कहीं दूर से
सीटी बजाती हुयी आती
कोई एक्सप्रेस ट्रेन
बिना रुके निकल जायेगी
छोड़ते हुए
एकांत और निरापद
इस छोटे से मैदानी रेलवे स्टेशन को
हमारे-तुम्हारे लिये,
वहाँ पास में रंगों वाली कटोरियाँ
और हाथ में ली हुयी कूचियाँ
कोई आकृति
ऐसी दिखेगी
जैसे कोई और नहीं बस तुम,
उस समय
उछ्वासें ले रही होंगी
बारिश की कई-कई रातों में
कई-कई बार भीगी
जंगली घास की भारी-पनीली दाहकताएँ ...
२३ जुलाई २०१२
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