युद्ध
आज भी है
वही आदिम युग
आक्रान्ताओं का आना
घोड़े पर सवार होकर
रौंदना हर खुशहाली को
फिर अपनी ताकत
और दूसरों के विनाश पर
करना अट्टहास।
कहाँ खत्म हुए हैं
खूँखार और बर्बर चेहरे
आक्रमणकारियों के
मकसद भी वही है।
जला देना चन्दन के जंगलों को
और टूटे फूटे देश में पैदा करना
एक जमात भयभीत और दुखी लोगों की।
पता नहीं
शान्ति का चेहरा कैसा होता है
शायद हाथ पर बँधा ताबीज मात्र
जिसे बाँध कर समझते है हम
खुद को सुरक्षित।
पर
सब जानते हैं
ताबीजों से नहीं कटती ज़िन्दगी
जीने के लिये जुटानी होती है
बहुत सी ताकत और साहस।
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