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अनुभूति में संतोष गोयल की रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
आज का सच
गर्मी का मौसम
चक्रव्यूह
जादुई नगरी में
जो चाहा
बच्चों ने कहा था
मरना
मेरा वजूद
युद्ध
साँस लेता इंसान

क्षणिकाओं में
फैसला
प्यास

संकलन में
गुच्छे भर अमलतास- पतझर

  चक्रव्यूह

जिसमें फँस गये हो
आज तुम
वह चक्र्रव्यूह
तुमने ही तो बनाया था
तुम्हारे लिए ही तो बनाया गया था
बात चाहे आज की हो
या वर्षो पहले की हो
आगे आने वाले वर्षो की हो
हमेशा से
एक ज़मीन थी
और था
एक अधिकार भाव
तथा अधिकार के लिए किया जाने वाला युद्ध था।
एक तरफ थे कौरव
दूसरी तरफ पाण्डव थे
चाहे बाहर थे या मन के भीतर थे
क्या फर्क पड़ता है
अधिकार उनका न था
ज़मीन मेरी थी
सभी तर्क बेबुनियाद थे।
ज़मीन के अधिकार के लिए
दिया जाने वाला तर्क ही तो
वह चक्रव्यूह था
जिसमें तुम खुद ही फँस गये थे
निरीह बने अभिमन्यु की तरह।
अब हे अभिमन्यु
चक्रव्यूह में फँसे अभिमन्यु
तर्क्र करने का वक्त ही कहाँ बचा है।
तुम्हारा अधिकार भाव ही
केंसर की तरह फैल गया है सारे जिस्म में।
शिराओं से बहने लगा है मवाद।
अधिकार का रंगीन पर्दा ही बन गया है दृष्टि विरोधक।
अब इस स्थिति में मज़बूर खड़े तुम
महसूसते रहो अपनी पीड़ा
और
बन्द आँखो से देखते रहो
अपना भावी विनाश
जो आया ही चाहता है किसी भी क्षण।
खुद के ही बनाये
चक्रव्यूह के रथों के काले पहियों के नीचे
पिस जाना
पिसते रहना ही
अब तुम्हारी नियति है
जो चाहो कितना भी बदली नहीं जा सकती।
 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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