साँस लेता इन्सान
आज का नहीं
आदिम निणर्य है
ये तो
कि जानवर इन्सान को देखकर
या कि इन्सान जंगल में घुस कर
खतरे का अहसास करने लगता है
और यह खतरा ही
युद्ध की शक्ल अख्तियार करने लेता है
फिर न जानवर जानवर होता है
न इन्सान इन्सान।
बस
बच रहता है मात्र युद्ध बना वर्तमान
जिसका अन्त हमेशा ही आतंक फैलाने
या आतंकित होने से होता है।
पैसे और पॉवर का `प' बहुत पावरफुल है
तभी तो नहीं खत्म होती कथा
इन्हें पा लेने भर से।
पैसा शोभा यात्रा सा दीखाता है खुद को
नाच नाच कर
तमाशबीन बना
न देखने वाले को सज़ा तज़वीज करता
और
न मानने पर
फैलाता आतंक की धुन्ध और धुआँ
आखिर
आतंक के शस्त्र खरीद सकने की ताकत पाया वह
क्यों न जीये एक बादशाहत।
पैसे के बल पर पाई बादशाहत ही
बन जाती है वह विस्फोटक पदार्थ
जिसके फट पड़ने पर
निकल पड़ते हैं
भय के सैंकड़ो कनखजूरे
जो सीधा घुस पड़ते है मन के भीतर
अपना समूचा ज़हर फैलाते
और सुनने की ताकत को सुन्न करते हुए।
लगता है
हम सब मरे हुए
शमशान में उघड़ी लाशो से पड़े लोग हैं
जिन्हें अपनी मौत
अपनी आँखों से देखने की यातना भोगनी ही होगी
क्योंकि
सामने दीखती रहती है
चारों ओर फैली भय की गहरी काली चादर
जो धीरे धीरे आसमान तक पहुँच कर
काले सायों में बदल जायेगी।
इन काले सायों के बीच
साँस लेता इन्सान
खुद को कब तक समझता रहेगा जिन्दा
आखिर उसे कुछ फैसला तो करना ही होगा। |