गर्मी का मौसम
गर्मी का मौसम था
और सम्पादक जी से एक कविता का वायदा था
पूरा करने
जोशो खरोश से बैठ गया था
पंखे को फुल स्पीड पर चला कर
सोचता हुआ ` चलो अच्छा है
अच्छे से पहले लू को महसूस लूँ
फिर घुस जाऊँ अनुभवों के पोखर में।'
हँसी आई थी पोखर शब्द पर
कितनी उमस भरी कीचड़ थी
कमरे के पोखर में
पंखे से आते
लू के थपेड़ों को महसूस करते हुए
सोचता रहा था कि कैसे लिखूँ कविता
इस उमसभरी गर्मी में।
अजीब सही
पर सच तो यही है कि
ग्रीष्म ऋतु में खिलते
अमलतास के गुच्छे के गुच्छे
मुझे नहीं दीखते
न ही उनके रंग मुझे
बुलाते
अपनी ओर
अमराइयों में आमों से लदे फँदे पेड़
फ्ालसों से लदी रेड़ियाँ
बिखरे हुए जामुन
यूनिवर्सिटी की सड़कों पर
कुछ भी नहीं दीख पड़ता मुझे।
कहीं ऐसा तो नहीं
सूख गया हो मेरी संवेदनाओं का
वो गीलापन
जो तरावट भरता था मन तन में।
पर फिर भी
कविता तो लिखनी होगी सूखे रूखे मन से इस सूखे गरमाये गर्मी के
मौसम में।
क्योंकि कविता का वायदा है संपादक जी से
जिस पर मुन्नसर है उस धन का मिलना
जिस से जानी है स्कूल की फीस
घर का किराया।
खाने का सामान भी
मुहय्या होगा इसी से।
पत्नी बच्चों के चेहरे की खुशियों को कैसे नकार देता
लिखने बैठ गया कविता इस सड़ी झुलसाती गर्मी में।
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