अनुभूति में
संतोष गोयल की रचनाएँ -
छंदमुक्त में-
आज का सच
गर्मी का मौसम
चक्रव्यूह
जादुई नगरी में
जो चाहा
बच्चों ने कहा था
मरना
मेरा वजूद
युद्ध
साँस लेता इंसान
क्षणिकाओं में
फैसला
प्यास
संकलन में
गुच्छे भर अमलतास-
पतझर
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जादुई नगरी में
उस जादुई नगरी में
शीशे के महल में पलते
मेरे नन्हे मुन्ने बड़े हो रहे हैं ऐसे
जैसे कोई बड़ा ही नहीं हुआ कभी कोई और।
समझदारी की डोर को
थाम कर एक जगह खड़े वे भूल रहे हैं
कि आगे बढ़ने का नाम ही बड़ा होना होता है।
वे बस बदलते समय
चमक दमक भरी दुनियाँ के आइने में
बड़े बड़े सपनों को हासिल करने की
बड़ी सी जद्दोजहद में भूल गये हैं
अपना अम्बर अपना घर
यहाँ तक कि अपने लोग भी।
उनकी दुनियाँ तिलिस्म की बनी है।
सम्मोहन की गोंद से चिपके
वे ये भी भूल गये हैं कि
जादुई करिश्मों का
ज़िन्दगी से कोई रिश्ता नहीं होता।
जादू
खूबसूरत घर तो दे सकता है पर
नहीं देता ज़िन्दगी के अदेखे अजाने मोड़ों पर
मुड़ सकने का विश्वास।
कभी कभी लगता है बच्चे डर रहे हैं
भय और त्रास घिर आयें हैं काले बादलों से।
करिश्मों और शीशों के महल से बाहर झांकने की
हिम्मत नहीं बच रही उनमें।
बाहर खड़े सम्बन्धों
और उनके बीच खड़ी है शीशे की बड़ी सी दीवार।
हाथ बढ़ाना उन्होंने छोड़ दिया है।
निराश करीबी सम्बन्धों ने
अपना मुँह छिपा लिया अपने कोटर में।
खींच लिया है अपना निश्वास
और अपना विश्वास
अपने ही भीतर
सोचते हुए कि क्या होगा कल
जब बच्चे अकेले असुरक्षित रह जायेंगे।
उस शीश महल में
मिल पायेगा क्या उन्हें एक वट वृक्ष।
पर
उन्होने रख लिया है काँच का एक टुकड़ा
अपनी जेब में सुरक्षा कवच सा।
और
दूर खड़ा मैं देख रहा हूं इन बच्चों का बड़ा होना
उस जादुई नगरी के शीश महल में
चुपचाप विवश।
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