आज का सच
विवशता
उससे हम बँधना तो नहीं चाहते
पर
बाँध लेती है जोंक सी चिपक कर ।
छटपटायें कितना भी
खून तो रिसेगा ही ।
सब्र को नमक कहाँ मिल पाता है।
मन से निकल पड़ती आहें
उहापोह
खड़े कड़वे बोलो के दंश
कैसे नियन्त्रित करें
सहेजे खुद को
कैक्टसों की बाड़ तक नही मिल पाती है।
ऐसा लगता है
गले में बाँध दी है एक रस्सी वक्त ने
जिससे खींचे चले जाना ही अब हमारी नियति है
क्योंकि
सभी अपने से लगने वाले सम्बन्ध तक पराये हो चले हैं।
अब तो
अपने भीतर की
इस गर्म भभकती राख को
जिसके भीतर ही छिपी हैं
अनन्त दुख की चिंगारी
उसे कुरेदते रहना और
उसके फिर से भभक उठने का इन्तज़ार करना होगा।
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