अनुभूति में
संध्या सिंह की
रचनाएँ -
गीतों में-
अब कैसे कोई गीत बने
कौन पढ़ेगा
परंपरा
मन धरती सा दरक गया
रीते घट सम्बन्ध हुए
दोहों में-
सर्द सुबह
छंदमुक्त में-
अतीत का झरोखा
खोज
बबूल
संभावना
सीलन
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मन धरती सा दरक
गया
कुछ मुट्ठी अपनी ढीली थी
कुछ स्वप्न निगोड़ा चंचल था
चुपचाप हाथ से सरक गया
मन धरती सा
दरक गया
धड़क धड़क कर दर्द बढ़ा
फिर साँसों में पीर घुटी
सूरज ने फिर लपटें उगलीं
फिर सागर से भाप उठी
गहन उदासी का चौमासा
फिर आँखों में
छलक गया
नींदों की अँधियारी बस्ती
सपना चंचल आवारा
मनमाने रस्ते मुड़ जाता
मन बहला कर थक हारा
पलकों बीच सहेजा बरसों
अब आँखों को
खटक गया
छल फरेब की लकड़ी सुलगी
सम्मोहन का उठा धुआँ
रंग महल के पीछे गहरा
बर्बादी का एक कुआँ
सँभल-सँभल कर ख्वाब चला था
अन्धकार में
भटक गया
तूफानों ने जुर्म किया था
सज़ा दरख्तों ने पायी
कोमल फूल लदी टहनी थी
आँधी के संग भरमायी
एक बवंडर झुला झुला कर
चट्टानों पर
पटक गया
२९ जुलाई २०१३
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