आतंकवादी की माशूका
हुस्न है अदा भी है
आशिक ही दहशतोजुनूँ को माशूक बनाए हुए हैं
सूरज औ' चाँद की रोशनी भी क्या करें
फ़ख़्र से मुँह में वे कालिख लगाए हुए हैं।
हम अब भी बाम पे जाते हैं,
चेहरे से नक़ाब सरकाते हैं।
देखने की ताब वो कहाँ से लाएँ,
जो सियाह रातों में चेहरा छुपाते हैं।
दिल ही नहीं देता है सदा,
नफ़रत की सियाही छाई हुई है।
जानलेवा तो अब भी है अदा,
पर मुहब्बत ही मुरझाई हुई है।
16 अप्रैल 2007
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