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वादों के झगड़े
सड़क पर
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मैं की जिद

मैं और मैं की जिद में
अपनत्व की छाया नहीं बचती
विश्वास के पेड़ लुप्त हो जाते हैं
प्रेम की मिट्टी
जैसी खुशबू जल जाती है
अकेलेपन की नीरसता
छा जाती है
सपनों के पक्षी
खोज का विषय हो जाते हैं
भीतर के आसमान का प्रतिबिम्ब
मटमैला पड़ जाता है
भावनाओं के अक्स
पुराण कथाएँ बन जाती हैं
सौंदर्यबोध की आँखें
खालीपन से भर जाती हैं
प्रकृति भी
जिद का प्रतिरूप बन जाती है
बचे रह जाते हैं पत्थरों के बीच
मैं और मैं।

१५ फरवरी २०१६

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