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शहर में हैं सभी अंधे
साथ तुम्हारा कितना प्यारा

 

 

शहर में हैं सभी अंधे

इस शहर में हैं सभी अंधे
हेराफेरी के चलते धंधे

टूट पड़े हैं किस पेड़ से
धन के लोभी आँख के अंधे

आँख के अंधे फिर भी चंगे
करवाते हैं रोज़ ही दंगे

मच रहा चहुँ ओर अँधेरा
नहीं होता यहाँ कभी सवेरा

गुंडों का जहाँ लगा है डेरा
पुलिस का भी है वहीं बसेरा

ईमाँ तो मिलता नहीं कहीं भी
बेईमानी के गड़े खज़ाने

इन्सां को न कोई पहचाने
सच्चाई की कद्र न जाने

मेहनत से हैं हुए बेगाने
काले धन के ये अफ़साने

ऐसे-ऐसे डाल दें फंदे
अंधों को दे दें हम कंधे

9 जुलाई 2007

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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