अनुभूति में
सतीश कौशिक
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अब शहर की हर फिजा
किसी के ख्वाब में
रेहन हुए सपने भी
सोचों को शब्द
अंजुमन में-
आ गजल कोई लिखें
दर-बदर ख़ानाबदोशों को
फिर हवा आई
सच को जिसने
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अब शहर की हर
फिजा
अब शहर की हर फिजा तब्दील-सी लगने लगी
हर नज़र इक दर्द की तफ़्सील-सी लगने लगी
मैं गया था छोड़कर इक चुलबुलाती-सी नदी
वो नदी ठहरी हुई अब झील-सी लगने लगी
दो क़दम भी था न तेरे घर से मेरा घर मगर
अब वही दूरी हज़ारों मील-सी लगने लगी
कब तलक ढोते रहेंगे उम्र की भारी सलीब
जिस्म ईसा और साँसें कील-सी लगने लगी
भर गए जब रात के गहरे समन्दर ज़हन में
याद हमको आपकी क़न्दील-सी लगने लगी
इन पिघलते फ़ासलों में आपकी ये ख़ामशी
बे-ज़बाँ जज़्बात की तफ़्सील-सी लगने लगी
१७ सितंबर २०१२
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