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अनुभूति में महावीर उत्तरांचली की रचनाएँ-

नयी रचनाओं में-
काश होता मजा
तलवारें दोधारी क्या
तीरो-तलवार से
नज़र में रौशनी है
रेशा-रेशा, पत्ता-बूटा

कुंडलिया में-
ऐसी चली बयार (पाँच कुंडलिया)

अंजुमन में-
गरीबों को फकत
घास के झुरमुट में
जो व्यवस्था
तेरी तस्वीर को
दिल से उसके जाने कैसा
बड़ी तकलीफ देते हैं
बाजार में बैठे
राह उनकी देखता है
साधना कर
हार किसी को

 

ऐसी चली बयार (पाँच कुंडलिया)

मानव दानव बन गया, ऐसी चली बयार।
चहूँ ओर आतंक की, मचती हाहाकार।
मचती हाहाकार, धर्म, मजहब को भूले।
बम, गोला, बारूद, इसी के दम पर फूले।
महावीर कविराय, बन रहे मानव दानव।
चला यदि यही दौर ,बचेगा कैसे मानव।
 

कैसा यह दस्तूर है, कैसा खेल अजीब।
सीधे साधे लोग ही, चढ़ते यहाँ सलीब।
चदते यहाँ सलीब, जहर मिलता सच्चों को।
बुरे करें सब ऐश, कष्ट देते अच्छों को।
महावीर कविराय, बड़ा है सबसे पैसा।
इसके आगे टूट, चुका सच कैसा कैसा।

ममता ने संसार को, दिया प्रेम का रूप।
माँ के आँचल में खिली, सदा नेह की धूप।
सदा नेह की धूप, प्यार का ढंग निराला।
भूखी रहती और, बाँटती सदा निवाला।
महावीर कविराय, दिया जब दुःख दुनिया ने।
सिर पर हाथ सदैव, रखा माँ की ममता ने।

ईश्वर का यह शाप क्यों, अब तक अप-टू-डेट।
हर युग में खाली रहा, निर्धन का ही पेट।
निर्धन का ही पेट, राम की लीला न्यारी।
सोये पीकर नीर, सड़क पर क्यों खुद्दारी।
महावीर कविराय, घाट का रहा न घर का।
भूखे पेट गरीब, न पूजन हो ईश्वर का।

पहचानो इस सत्य को, मिट जायेगी साख।
जीवन दर्शन बस यही, इक मुट्ठी भर राख।
इक मुट्ठी भर राख, कहें सब ज्ञानी ध्यानी।
मगर आज भी सत्य, नहीं समझे अज्ञानी।
महावीर कविराय, बात बेशक मत मानो।
निकट खड़ी है मृत्यु, सत्य कड़वा पहचानो।

३ मार्च २०१४

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