अब के ऐसा दौर
अब के ऐसा दौर बना है
हर ग़म काबिले-गौर बना है
उसके कल की पूछ मुझे, जो
आज तेरा सिरमौर बना है
फिर से चाँद को रोटी कहकर
आँगन में दो कौर बना है
बंद न कर दिल के दरवाजे
ये हम सब का ठौर बना है
इस्कूलों में आये जवानी
बचपन का ये तौर बना है
तेरी-मेरी बात छिड़ी तो
फिर किस्सा कुछ और बना है
झगड़ा है कैसा आखिर, जब
दिल्ली-सा लाहौर बना है
५ अप्रैल २०१० |