कुछ तो बेहतर हल पर सोचो
आने वाले कल पर सोचो ठहरा मौसम
टूटे दर्पण
खेतों में उड़ती चिनगारी
सूख रही पानी की साँसें
पत्तों पर बैठी सिसकारी
खेत अगर अच्छे हैं इतने
क्यों बीमार फ़सल पर सोचो जड़
बरगद की फैल न पाती
हर छाया को चोट लगी है
गली देखकर हवा मुड़ रही
किसकी होती धूप सगी है
पहले बाहर पाँव निकालो
फिर जालिम दलदल पर सोचो बाँध
बने तो नदी खो गई
बादल तक अनदेखी करते
कागज़ की नावों के सपने
चढ़ते तो हैं नहीं उतरते
सावन के हैं भरे महीने
क्यों गुम हैं बादल पर सोचो
काली रात पहाड़ों पर है
सूरज की रखवाली करती
पेड़ों में इस कदर ठनी है
पत्तों से हरियाली झरती
पाइप पानी हड़प रहा है
अब इस ठहरे जल पर सोचो -
सुधांशु उपाध्याय |