दशरथ विलाप
प्रासाद का यह प्रकोष्ठ आज कितना
भयावह
ताक पर दीप की तनु शिखा
नागिन-सी बल खाती, डस के लुप्त हुई जाती है
विषाक्त अंधकार रिस रहा
मध्य रात्रि का प्रहर यम के शंखनाद-सा बज उठा
इस एकल दीप के तिमिर से जूझने में
मृत्यु ही नहीं, जीवन भी है।
अंधेरे और उजाले की यह आँख-मिचौली
इन भित्ति-चित्रों को जीवंतप्राय करती है
जिन्हें असुर-विजय उपरांत कृतज्ञ इंद्र ने शिवकर्मा से
रघुवंश गाथा उजागर करने हेतु रचवाया था।
उस भित्ति पर सरयू तट का दृश्य
देखो,
चंचल दीप-किरणों से उद्वेलित लहरें
और धूम-शिखा शराग्र-सी
मुनिकुमार श्रवण का वक्ष चीरती हुई
माता-पिता का कंपन, रोता-बिलखता,
वृद्ध चेहरों की झुर्रियों पर शाप के आवेश की झाँईं
आज वह शाप अवश्य घातक होगा
राम के वन गए इस रात में पाँचवीं।
बारंबार मृत्यु का संदर्भ क्यों
आता है
क्षत्रिय हूँ, मृत्यु से डरता नहीं मैं
द्विज हूँ, वेद-शास्त्र में पारंगत
जानता हूँ शाप अंधविश्वास है
फिर भी यह चित्र मेरे विशेष आग्रह पर बना था
कि इसे देख-देख
अनिवार्य सामान्य रहे
कुटुंब को मान्य रहे
मरण-भय ह्रदय में न समाए
जो पुत्र-गोद के सुख से वंचित प्राण जाए।
लोकापवाद की ध्वनि मेरे कानों
में गूँज रही है
कि दुर्बल है दशरथ
नारी-मोह आसक्त
जब तुम्हें एक बार प्रखर ज्वरग्रस्त देख
भावना यह उठी मन में मेरे
कि पीड़ा तुम्हारी मुझ पर अवतरित हो आमरण
जानता था- हो नहीं सकता ऐसा
फिर भी धारणा में अंतर्सत्य है अपना
जो पिता के ह्रदय में सुप्त है
गंगा-प्रवाह बालुका में गुप्त है।
सरयू तट का एक और दृश्य
पुत्रेष्टि-यज्ञरत मैं, साथ वसिष्ठ मुनि-रत्न
केवल संतान का आह्वान ही नहीं
अपितु कुल-शृंखला से अराजकता बाँधे रखने का प्रयत्न
उस उत्तरदायित्व के योग बनाने के लिए
अस्त्र-शस्त्र, वेद, नीति सीख पाने के लिए
कच्ची उम्र में तुम्हें मैंने अनिष्ट से बचाना चाहा
विश्वामित्र के अनुष्ठान की रक्षा में मारीच-सुबाहु से संघर्ष,
धनुष-भंजन से कुपित जामदाग्नेय की भभक,
कलंकिनी कैकयी का दुराग्रह,
इन सबसे बचा न सका
कितना परवश था, वचनबद्ध था
मेरा मन यह जानता है, किंतु
मेरी नहीं, कैकेयी की थी वन-प्रस्थान की आज्ञा
मैंने तो चरणों पर उसके शीश रख
भरत के सिर पर राजमुकुट रखने का दिया आश्वासन,
बस तुम्हें वन न भेजने की भिक्षा माँगी
त्यक्त मनोरथ
भरे दरबार में राम-अभिषेक का संकल्प
वनवास की आज्ञा में उसी दिन बदलनेवाला
मैं जानता हूँ यह आरोप मिथ्या है
राजधर्म कितना कठोर होता है
कितनों को बोध है इसका?
राजा का वचन आधारशिला
जन-सत्यनिष्ठा की
खोखली राज्य की नींव जिसके बिना
और फिर कैकेयी को दिए वर
क्या दशरथ के प्राण बचाने का मूल्य मात्र?
अथवा युद्ध में योगदान का राजधर्मसंगत पुरस्कार
सेनापति बिना सेना असुर करते जो छिद्ध-विद्ध
रोकता कौन तब प्रजा के रक्त की वर्षा?
देती वही प्रजा आज मुझको लांछना
कैसी नियति? कितनी विडंबना?
पिता का धर्म भी कठोर कितना
राज-काज और रण-अभियानों से बचे क्षण
किलकते पुत्र को बाहों में भर लेने की अभिलाषा मेरी
बहुधा अनुशासन की परिधि पार न कर पाई
कौसल्या की दूध और अश्रुधारा में पले
तुम क्या जानो, शिशु थे
फिर सुमंत से तुमको मंत्रणा तक
दिलवाई
बंदी बना मुझे सिंहासन करो ग्रहण
अरण्य की ओर प्रस्थान उद्धत देख तुम्हें
चुप रहा मैं, आज्ञा फिर भी न दी
युग-युग जिससे भ्रांति रहे
प्रतिज्ञा निभाने की मेरी तुम पर कांति रहे।
इस रात मैं प्रकोष्ठ में अकेला
कैकयी का परित्याग तो पहले ही किया
कौसल्या, अंतिम सहचरी को भी अंतःपुर भेज दिया
सहज स्पर्श का उसके क्योंकि बोध खो गया है
मृदुल स्वर को मेरा प्रलाप डुबो गया है
मेरी इंद्रियों दीप-शिखा के संग बुझ रही हैं।
न तेल अब बाती में,
न चेतना देह में
रक्त-प्रवाह नदी के वेग जैसा
स्वयं अपने किनारों को ढहाता
शेष है कल्पना, सो उसके सहारे तुम्हारी गोद
में सिर रख लूँ
फिर अंतिम किरण के सोपान-सप्तक पर पग रख दूँ।
१२ अक्तूबर २००९ |