अनुभूति में
दीपिका जोशी 'संध्या'
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हो बहुत मुबारक नया साल
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कुक्कूं मुर्गा
ममतामयी–
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काव्यचर्चा में-
सिर्फ एक कोशिश
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मौसम के परिवर्तन
अब
लगी अस्तित्व खोने वसन्ती ठण्ड
जब
नरम धूप छोड़
तेज धूप ने रखे पाँव
सुबह
ढूँढे उस ओस की बूँद को
दिखती
गुम होती आज
धरती
खोने लगी शृंगार
हरियाली
की चुनरी छोड़ चली साथ
दर्पण
क्या देखे धरणी माँ
झुर्रियों से भरी
इन्तज़ार है
अब उसे आसमां पिघलने का
अब
आस है उसे बूँदो की
कब
झुलसी यह धरती
टपकाए
मीठी खुशबू खस से भरी
२४ अक्तूबर २००५ |