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अदा देखो अदा 
देखो, नक़ाबे-चश्म वो कैसे उठाते हैं, 
अभी तो पी नहीं फिर भी क़दम क्यों डगमगाते हैं? 
ज़रा अंदाज़ तो देखो, न है तलवार हाथों में, 
हमारा दिल ज़िबह कर, खून से मेंहदी रचाते हैं। 
हमें मंज़ूर है गर, गैर से भी प्यार हो जाए, 
कमज़कम सीख जाएँगी कि दिल कैसे लगाते हैं। 
सुना है आज वो हम से ख़फ़ा हैं, बेरुख़ी भी है, 
नज़र से फिर नज़र हर बार क्यों हम से मिलाते हैं? 
हमारी क्या ख़ता है, आज जो ऐसी सज़ा दी है, 
ज़रा सा होश आता है मगर फिर भी पिलाते हैं। 
ज़रा तिरछी नज़र से आग कुछ ऐसी लगा दी है, 
बुझे ना ज़िन्दगी भर, रात दिन दिल को जलाते हैं। 
वफ़ा के इम्तहाँ में जान ले ली, ये भी ना देखा 
किसी की लाश के पहलू में खंजर भूल जाते हैं। 
६ अक्तूबर २००८  |