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 एक बार फिर  
एक बार फिर, 
निमंत्रण दिया मैंने 
अपने आँगन में बसंत को। 
एक बार फिर, 
काली डरावनी अवसादग्रस्त 
परछाइयों को कहा, अलविदा। 
एक बार फिर, 
मोक्ष का मोह छोड़ 
उतरी जीवन के गहरे तलछट में। 
एक बार फिर, 
झूठ की सरसराती पूँछ पर रख, 
सच की सफ़ेद रोशनी में, 
टटोला अपने वजूद को। 
हर पड़ाव पर इसी 
एक बार फिर 
के दर्शन की धार को पैना किया। 
बड़ी शिद्दत के साथ दोहराया 
एक बार फिर। 
1 दिसंबर 2006  
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