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 आवाज़ों का कोलाहल  
उस पार से लौटती 
आवाज़ें। 
देहरी को लाँघने की 
अलमस्त प्रक्रिया में 
धकती आवाज़ें। 
लहरों-सी उफनती, 
प्रेम से पानी होती, 
देर तक इंतज़ार करती, 
आवेग को भीतर समेटती आवाज़ें। 
रचा बसा अंश ले, 
परिपक्व होती जाती आवाज़ें 
बढ़ता ही चला जाता है 
इन घनी आवाज़ों का शोर। 
उस पार से आती आवाज़ों 
का शोर बढ़ता जाता है उत्तरोत्तर। 
नहीं समेट पाती मेरे आँसुओं का रुदन। 
खामोश-सी इस पार 
लहरों, हवाओं, बादलों, 
पेड़ों, वनों का 
धीमा-मध्यम कोलाहल सुना करती हूँ। 
1 दिसंबर 2006  
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