| होली बीती 
                  रही विरस, नीरव, नत रीती।बिना पुआ के होली बीती।
 मैं अपने कमरे का द्वार,खोल निकलता बारंबार।
 किंतु न रंग किसी ने डाला
 समझ न पाया गड़बड़झाला।
 कारण एक रहा हो सकता
 शायद मूल्यों की स्फीति!
 लिया किसी ने नहीं नाम तकचढ़ा न मुझ पर रंग शाम तक।
 आखिरकार मिटाने झेंप
 लिया रंग खुद मुख पर लेप।
 मैं मरघट-सा बना रहा
 पर दुनिया रही जागती-जीती!
 प्रवाहमान था वायु अमिय भरकिंतु चोट करता था हिय पर।
 पा रसाल यौवन का भार
 था इतराता बारंबार।
 मुझे चिढ़ाती हुई कोयलें
 रही प्राण रस हँस-हँस पीती!
 १ मार्च २००६ |