अनुभूति में ज़ाकिर
ख़ान ज़ाकिर की रचनाएँ-
अंजुमन में-
ऐसे तेरा ख़याल
कुछ खुशियाँ
ज़र्द पत्ते
दिल के टुकड़े
ग़म मिलते हैं
छंदमुक्त में-
कर्फ्यू
|
|
ज़र्द पत्ते
जर्द पत्ते कुछ नमी पाकर
हरे होने लगे
दुश्मनो के दरमियाँ फिर मश्वरे होने लगे
बोलना भी जुर्म है यह सोचकर खामोश था
मेरी खामोशी पे फिर भी तवसिरे होने लगे
इन चरागों की हिफाजत में जरा उट्ठे कदम
अब हवाओं के झकोरे सिर-फिरे होने लगे
जब भी कोई आईना टूटा तुम्हारे शहर में
मेरे दिल के टूटने के तजकिरे होने लगे
दोष क्यों दें अपनी किस्मत को हमी हैं मुरतकिब
काम खुद हमसे हमारे अब बुरे होने लगे
लोग अपने आप के अंदर सिमट कर रह गये
मुख्तसर अब जिन्दगी के दायरे होने लगे
दोस्ती कीजे ज़रा 'ज़ाकिर'
सँभलकर आजकल
दोस्त भी हालात पर खोटे खरे होने लगे
९ जुलाई २००५
|