अनुभूति में
शैलाभ शुभिशाम की रचनाएँ-
तुकांत में-
अर्पण कर लो
इक तू रंग
हार जीत
मैं स्वप्न नहीं तेरा
रिसते हुए रक्त ने
रुकी हुई सी |
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रुकी हुई सी
रुकी हुई सी साँसें तेरी, जैसे पलकें झुका रहीं हैं
इक सागर में छोटा मोती, वैसे खुद को डुबा रही हैं,
इस सावन के बाद भी जैसे, तुझको अब वो बुला रही है,
अबकी बार पड़ीं कम बूँदें,
मुझको अब तो रुला रही हैं।
साथी छूटे, जीवन छूटा, कालचक्र का रूप अनूठा,
कुछ हारा, कुछ जीता लेकिन, बूँदें दिल भी जला रही हैं,
इक है चाँद कि जिसके कारण, लहरें जैसे उठतीं उठतीं।
इक सागर है फैला फैला, जो लहरों को बुला रही हैं।
अबकी बार पड़ीं कम बूँदें,
मुझको अब तो रुला रही हैं।
अब लहरें ही देखें आखिर, किसमें कितनी सच्चाई है,
चाँद दूधिया, सागर गहरा, किसमें किसकी परछाई है।
शब्द अधूरा, अर्थ अधूरा, ये पूरा संदर्भ अधूरा,
खुशी अधूरी, साँस अधूरी, मेरा पूरा दर्द अधूरा,
ऐसा सावन, ऐसी चुप्पी ना जाने क्यों झुला रही है,
अबकी बार पड़ी कम बूँदें,
तुझको अब वो रुला रही हैं।
९ मार्च २००५
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