अनुभूति में
शैलाभ शुभिशाम की रचनाएँ-
तुकांत में-
अर्पण कर लो
इक तू रंग
हार जीत
मैं स्वप्न नहीं तेरा
रिसते हुए रक्त ने
रुकी हुई सी |
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रिसते हुए रक्त ने
रिसते हुए रक्त ने पूछा, ये क्या युद्ध की भाषा है,
कटे लाख सर बिन कारण के, पर बढ़ती और पिपासा है,
कहाँ वक्त ने हँसते हँसते, ये हर युग की परिभाषा है,
हर युग में ये होता लेकिन,
ये भी खूब तमाशा है।
इक युग में देखा कालिंगा, इक युग में रामायण देखा,
इक में देखा छत्रपति तो, इक युग में नारायण देखा।
सतयुग आया, देखा अर्जुन, इक एकलव्य भी मैंने देखा,
देखी मैंने मरती साँसें,
लाल द्रव्य भी मैंने देखा।
कहा वक्त ने चुपके से फिर, तू क्यों रोता लहू मगर है,
गर शरीर में दर्द छिपा है, थोड़ी भी सच्चाई अगर है,
आएगा इक दिन ऐसा भी, जब वो खुद में ही रह जाएगा,
फिर सोचेगा क्या पाया उसने, युद्ध की क्या कुछ परिभाषा है?
हर युग में ये होता लेकिन,
ये भी खूब तमाशा है...
९ मार्च २००५ |