अनुभूति में सत्यवान शर्मा
की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
अहंकार
तेरी रचना
पथिक
परमात्मा
मैं बढ़ता ही जाऊँगा
रिश्ते
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तेरी रचना
और क्या मैं तुझे समझूँ
जितना समझता हूँ
उलझता जाता हूँ।
एक खोए हुए प्रेमी की भाँति
तेरी लीलाओं की कविताएँ रचा करता हूँ
ह्रीं श्रीं क्लीं
तीनों ही देवियाँ
जिसे जैसा चाहे वैसा नचाती है
बलि चाहे इन्द्रलोक पाताल पहुंचा देती है
मेरी इच्छाएँ भी अनंत हैं
कि मुझे भी वे सब मिेले
जो मिलने चाहिए
अभी कुछ कमी है
लेकिन ईश्वरीय इच्छा भली है
वह चाहता है बचाना
मैं चाहता हूँ फँस जाना
उसने पहले भी उभारा है
अब भी उभारेगा
यदि वह मुझे भी लटका देता तो
मैं क्या यह सोचता कदापि नहीं
अब दे दिया है तो ज्यादा सोचता हूँ
जिसने दिया उसे भूल जाना चाहता हूँ
चला जाना चाहता हूँ
उस दल दल में
जिसमें से फिर निकलना
मुश्किल है
जो निकलेगा वह भी फंस जाएगा
तो हे ईश्वर दयावान प्रभू
मेरी नैया तेरे हाथों में
मैं पतवार विहिन हूँ
जहाँ तू चाहेगा ले जाएगा
मैं देखता रहूँगा
तेरी कृपा पर तुझे धन्यवाद दूँगा
नित्य अपना कार्य करूँगा
धैर्य से भव सागर पार उतरूँगा।
९ अक्तूबर २००४ |