अनुभूति में सत्यवान शर्मा
की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
अहंकार
तेरी रचना
पथिक
परमात्मा
मैं बढ़ता ही जाऊँगा
रिश्ते
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पथिक
पथिक तूने सोचा तो
बहुत था
मंजिल पा लूँगा।
बेशक
चला भी बहुत पायी भी सही
मंजिल पर मंजिल कौन सी धन की इज्जत की शोहरत की
पगडंडी की
या शान्ति की
हाँ पाया मैंने
बे हिसाब दौलत ऐशो आराम
परइज्जत दबी जुबान
शोहरत झूठी शान
पगडंडी ही क्या वायुयान
पर फिर भी कसक है
कुछ पाना था पाया नही
क्या शान्ति सत्संग वह आनन्द
जिससे आँखों में खुशी के आँसू
छलक उठे
आनन्द विभोर हो उठे
रो उठे
उसे पाने को
जो इनसे अलग है किन से झूठी शान इज्जत
अनगिनत अरमान।
किसी की रोती हुई आँखों से
आँसू पोंछ सकूँ
किसी दुःखियारे को नवजीवन दे सकूँ
बूढ़े माँ बाप को कथा सुना सकूँ।
उनका अपार प्यार पा सकूँ
कोई मुझे दिल से याद करें
मेरे तार फट से ऐसे जुड़ें
न देर लगे न झंझट
हो जाउं तत्क्षण
वहाँ उपस्थित
हर लूँ सारी चिंताएँ
भर लूँ उसे बाहों में
लगा लू अपनी छाती के
सारे दुःख समेट लूँ अपनी
विशाल भुजाओं में
कर दूँ दुःख मुक्त
कि उसकी आँखों से भी
छलक उठे खुशी के आँसू
तो समझूँ पा ली
मैंने मंजिल
असली मंजिल।
९ अक्तूबर २००४ |