अनुभूति में सत्यवान शर्मा
की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
अहंकार
तेरी रचना
पथिक
परमात्मा
मैं बढ़ता ही जाऊँगा
रिश्ते
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मैं बढ़ता ही जाऊँगा
सच है मैं तो टूटा ही नही
तुमने ख्वाबों को तोड़ दिया
आँखों के उस प्रेम अनल को
बन पत्थर दिल छोड़ दिया
अपने हिये की गहराई से
जाने कैसे मुँह मोड़ लिया
सच है मैं विचलित हुआ तो न हूँ
जबकि नद प्रवाह में
एक विराट पाषाण आ खड़ा हुआ
मुक्तकंठ विहग शरीर उसका देखो
कैसे निस्पंद हो पड़ा हुआ
ढहता है सपनों का महल
देखो दोनों का हृदय जड़ा हुआ
सच ही अडिग खड़ा हूँ मैं
भले ही वक्त के थपेड़े खाए
कल्पना मुझे हतोत्साहित कर जाए
प्रिय की बातों का कोरा यथार्थ
मन को शंकाओं से भर जाए
इकरार भरा इनकार वार
प्रतिपल मन को भरमाए चकराए
अंतिम सच तो है ये
विघ्न बाधाएँ अनगिनत आईं
पर मुझसे टकराकर टूटी हैं
चाहे कितना भी जोर बहे
ये अंधड़ और तूफान सहे
मैं अनवरत बढता ही जाऊँगा
अपनी नव प्रिया को ढूँढ
फिर से सपनों का महल बसाऊँगा।
९ अक्तूबर २००४ |