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कविता हूँ मैं
हँसी खुशी, रिश्ते नाते ,एहसास
दोस्ती से मिल कर बनी कविता हूँ मैं,
जो अपनी होकर भी, बुरी लगे, ए
क ऐसी ही अजीब दुविधा हूँ मैं,
अशोक के गर्म खून-सी, बौद्ध शांति में पली,
गुमनाम संघमित्रा हूँ मैं
शब्द से निर्मित हूँ, शब्द अन्त है मेरा
मुक्त छोड़ दो तो खो जाती हूँ,
हर बार बाँधनी जो पड़े, एक ऐसी भूमिका हूँ मैं
हुनर जिसका भीड़ में नज़र आता है,
वो एक छोटी-सी कणिका हूँ मैं
जिसके दामन में अश्क गिर के सोते है,
शायद ऐसी एक अंकिता हूँ मैं
ज़िन्दगी के रंगो से भरी,
ज़ख्मो से हर बार सजी,
खुद से मिल खुद खो जाने वाली,
एक अनजान चित्रा हूँ मैं।
१४ अप्रैल २००८
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