|
बुढ़ापा
आँगन की तपती दोपहरी में, खाट
के जैसे तपता-सा
अपनो के चेहरों में ही, अपनों की राहें तकता-सा।
चेहरे की झुर्री में मुस्कान
कहीं गुम हो जाती,
तनहाई में यादों की, बातें पुरानी रटता-सा।
इस गली से उस मोड़ तक नज़रे
जा-जा कर आती,
हाथ में लाठी, बैठ बगीचे में, सुख-दुख के पंखे झलता-सा।
अपने ही किस्सों की कहानी
बुन-बुन कर, सबको सुनाता,
देख चुका जीवन के सब रंग, बन बैठा अब पतझड़-सा।
चकाचौंध से घर में दिवाली होती
है अक्सर अब तो,
बेबसी में बेवजह, बाम पे रखा, 'दीप' कोई है जलता-सा।
३१ मार्च २००८
|