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प्रेम: चार कविताएँ
मैं न आऊँगा
यह कोई व्यथा कथा नहीं
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क्षणिकाएँ
धुआँ धुआँ ज़िन्दगी

 

प्रेम: चार कविताएँ

एक

परिभाषा
बाँधती है, निश्चित करती है
सीमाएँ
अपरिभाषित प्रेम के बंधन में
हम और तुम


दो

आवश्यकता क्या है
शब्दों की
चलो अवयक्त को बाँचते हैं
मौन की भाषा में
नियंता के साथ

तीन


धूप की परछाइयों में
बैठें हैं हम और तुम
एक दूजे के अकेलेपन में गुम
साथ में
उत्सव का अहसास

चार

परिणाम
परिणिति या नियति
सोचकर
क्या किसी ने
वास्तव में प्रेम किया है

१५ अक्तूबर २०००

 

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