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प्रेम: चार कविताएँ
मैं न आऊँगा
यह कोई व्यथा कथा नहीं
यादें
क्षणिकाएँ
धुआँ धुआँ ज़िन्दगी

  मैं न आऊँगा

तुम कितना भी पुकारो
मैं न आऊँगा

जो सोचा वही बोला किया
एक जीवन तर्कों से परे
आसक्ति की मदिरा पी मन बाध्य है
नेह नैनों का तुम्हारे
मैं भले न पाऊँगा पर मैं न आऊँगा

छिद गया तीरों से तन
बिंध गयी आत्मा
यह पीड़ा प्रेम की असाध्य है
मुक्ति माधवऋ तुम्हारी तरह
मैं भले न पाऊंगा पर मैं न आऊँगा

तुम कितना भी पुकारो
मैं न आऊँगा

१५ अक्तूबर २०००

 

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