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वर दो ऐसा
(१)
वर दो ऐसा, शारदे, नमन करूँ ले आस।
हटे तिमिर अज्ञान का, और बढ़े विश्वास।।
और बढ़े विश्वास, ज्ञान की गंगा आये।
बहे सरस साहित्य, सभी का मन महकाये।
कह ‘आकुल‘ कविराय, मधुमयी रसना कर दो।
वैर द्वेष, हों खत्म, शारदे ऐसा वर दो।।
(२)
हिन्दी के उन्नयन को, बने राय
मिल बैठ।
गाँव गाँव अभियान हो, और बनाये पैठ।।
और बनाये पैठ, सोच सबकी बदलेगी।
हिन्दी को भी एक, प्रभावी दिशा मिलेगी।
कह ‘आकुल‘ कविराय, आज है पिछड़ी हिन्दी।
निश्चय ही सिरमौर, बनेगी, अपनी हिन्दी।।
(३)
बच्चे, बूढ़े, नारि, नर, पायें अक्षरज्ञान।
क्या समझें संसार को, जो अपनढ़ नादान।।
जो अनपढ़ नादान, कूप मंडूक कहाते।
शिक्षा पाकर लोग, बड़े ज्ञानी बन जाते।
कह ‘आकुल‘ कविराय, अशिक्षित खायें गच्चे।
पाएँ अक्षरज्ञान, नारि, नर, बूढ़े, बच्चे।।
(४)
माँ की आँखों से बहे, गंगा जमुना नीर।
माँ को कष्ट कभी न दें, फूटे कभी न पीर।।
फूटे कभी न पीर, हाल हर देवें खुशियाँ।
लें माँ का आशीष, भरें इससे अंजुरियाँ।
कह ‘आकुल‘ कविराय, उठा ले बला जहाँ की।
फिर भी करे न हाय, महत्ता ऐसी माँ की।।
(५)
वृक्षारोपण हो सखे, जगह जगह हों पेड़।
जीवन है पर्यावरण, मीत न इसको छेड़।।
मीत न इसको छेड़, प्रदूषण मुक्त करायें।
पथ, पगडंडी, ग्राम, नगर में पेड़ लगायें।
कह ‘आकुल‘ कविराय, न हो वृक्षों का शोषण।
वन, उपवन की शान, करें हम वृक्षारोपण।।
४ अगस्त २०१४
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