एक पत्र फोटो सहित
अंतर है, एक बहुत बड़ा अंतर है
यहाँ भारत में हिंदी के लिए कुछ करने में
और वहाँ, जहाँ आप हैं वहाँ से कुछ करने में
अंतर है, सचमुच अंतर है।
आपका काम अपने भोलेपन की निश्छलता में विराट है
यहाँ भोलेपन की अधिकता का ठाठ है।
आप कविसम्मेलन वाले हैं
आपका कविता से क्या लेना देना?
आप हिंदी ग़ज़ल वाले हैं
आपका ग़ज़ल से क्या लेना देना?
आप साहित्यिक हैं
तो फिर आपके लिए लोकप्रिय होना पाप है
आप अगर लोकप्रिय हैं
तो साहित्य में आपकी अनपेक्षित पदचाप है।
ऐसा क्यों हैं?
वैसा क्यों हैं?
पैसा क्यों हैं?
अररररे भाई!!! मुझे एक ही बात बताइए कि हिंदी आपका
लगाव है
या कभी ना भर पाने वाला घाव है?
जब देखो बस कुंठाओं का रिसाव है?
क्यों भूलते हो कि एक चीज़ की हमेशा जीत होती है जिसका नाम सद्भाव है?
अगर हज़ारों को संबोधित करना है तो भाषा में
संप्रेषण का पानी
मिलाना ही पड़ेगा
हूट हो जाएगा अगर अड़ेगा
उदास के लिए, ज्ञानी ख़ास के लिए, क्लास के लिए या
मास के लिए, सबके लिए
अलग-अलग भाषा-शिल्प अपनाना होता है
हर ताल का अपना गोटा है
हर मुखड़े की अपनी ताल है,
हर दुखड़े का अपना मलाल है।
बहरहाल. . .
मुझे अनुभूति और अभिव्यक्ति इसलिए अच्छी
लगती है
क्योंकि आप लोगों के अंदर हिंदी को लेकर एक रचनात्मक आग है,
भविष्यवादी दृष्टि है,
रचना-सृष्टि है।
कई बार मन में आता रहा कि अपनी प्रतिक्रियाएँ भेजूँ
पर एक-एक भागमभाग, पैर में चक्कर।
आज यहाँ, कल वहाँ, परसों जाने कहाँ
तभी तो नाम चक्रधर!!
और न दाद पाने के लिए कह रहा हूँ ना बग़दाद के लिए
सृष्टि अगर बची रहेगी तो अनुभूति और अभिव्यक्ति के
बिना
ज़्यादा नहीं चल पाएगी।
बची रहेगी तो नाचेगी और गाएगी।
अपनी दो पंक्तियाँ इन दिनों मुग्ध किए रहती हैं
ख़ामखाँ
तू गर दरिंदा है तो ये मसान तेरा है
तू गर परिंदा है तो आसमान तेरा है!
अपनी नहीं, वाचिक परंपरा की ताक़त दिखाने के लिए
कुछ चित्र संलग्न हैं
हाल ही के हैं मार्च महीने के
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