ख्वाबों के नए मेघ
खिड़की से अलग होती
सलाख की तरह हूँ
तुम शाख से जुड़ते हुए पत्तों की तरह हो
मैं पेड़ से जुड़ती हुई शाखों की तरह हूँ
जंगल में कटे पेड़ तो
बढ़ जाए अँधेरा
पाँवों से लिपट साँप सा
चढ़ जाए अँधेरा
तुम दूर बहुत दूर, बहुत दूर गगन में
उड़ने को मैं खुलती हुई पाँखों की तरह हूँ
क्षितिजों से कहीं दूर नई
दुनिया भी कहीं है
आवाज मगर उस ओर से
आती ही नहीं है
मैं तुमको उड़ानों की नई तर्ज बताऊँ
ख्वाबों के नए मेघ लिए आँखों की तरह हूँ
मजबूर अगर बर्फ है तो
है आग भी मजबूर
है आम चेहरा बस्तियों का
हो गया बेनूर
जो बाँध लूँ मुट्ठी तो निजामों को बदल दूँ
मैं एक अकेला कई लाखों की तरह हूँ
१९ अक्तूबर २००९ |