कमीज़ के नीचे
कितना झूठ जिएँ हम हँसकर
कितना रोएँ छीजें
तार तार बनियान है
उजली कमीज के नीचे
मन की राधा नाच न
पाई
कभी किनारे नाव न आई
सन्नाटे में डूबी खाई
केवल सूखी बदली छाई
बच्चों को कैसे समझाएँ
सूखी बेल कहाँ तक सींचें
धुँधली पड़ती हुई
नज़र है
चुप्पी पीता हुआ शहर है
बंद खिड़कियोंवाला घर है
दीवारों पर चस्पाँ डर है
दूर क्षितिज पर बूढ़ा सूरज
काली रेखा खींचे
खड़े रहे हम पंजों
पर ही
खुद को कसे शिकंजों पर ही
कसते फिकरे-तंजों पर ही
बिछे रहे शतरंजों पर ही
जले हुए फूलों को लेकर
फूलों के बुन रहे गलीचे
१९ अक्तूबर २००९ |