ग्रीष्म
महाकाव्य-सी दोपहर, ग़ज़ल सरीखी प्रात
मुक्तक जैसी शाम है, खंड काव्य-सी रात
आँधी, धूल, उदासिया और हाँफता स्वेद
धूप खोलने लग गई, हर छाया का भेद
धूप संटियाँ मारती, भर आँखों में आग
सहमा मुरझाया खड़ा, आमों का वह बाग
सूखे सरिता ताल सब, उड़ती जलती धूल
सूखे वंशीवट लगे, उजड़े-उजड़े कूल
तपे दुपहरी सास-सी, सुबह बहू-सी मौन
शाम ननद-सी चुलबुली, गरम जेठ की पौन
छाया थर-थर काँपती, देख धूप का रोष
क्रुद्ध सूर्य ने कर दिया, उधर युद्ध उद्घोष
जीभ निकाले हाँफता, कूकर-सा मध्याह्न
निष्क्रिय अलसाया पड़ा, अज़गर-सा अपराह्न
सिर्फ़ जँवासा ही खड़ा, खेतों में हरषाय
जैसे कोई माफ़िया, नेता बन इतराय
लू के थप्पड़ मारती, दरवाज़े पर पौन
ऐसे में घर से भला, बाहर निकले कौन
यमुना तट से बाँसुरी, टेर रही है आज
शरद-पूर्णिमा चल सखी, रचें रास का साज
यमुना-कूल, कदंब तरु, ब्रज वनिता ब्रजराज
शरद-पूर्णिमा चाँदनी, नाचे सकल समाज
पथहारे को पथ मिला, विरहिन को प्रिय संग
सूर्य किरन दिन को मिली, खिले शरद के रंग
1 मई 2007
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