अनुभूति में
ओम नीरव
की रचनाएँ
अंजुमन में-
गजल क्या कहें
छलूँगा नहीं
जिया ही क्यों
फागुनी
धूप में
हंस हैं काले
गीतों में-
धुंध के उस पार
पल पल पास बनी ही रहती
पाँखुरी पाँखुरी
माटी तन है मेरा
वही कहानी
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माटी तन है मेरा
माटी तन है मेरा माटी धन है मेरा
माटी में मेरा जीवन सँवरता रहा
मेरी हर साँस बंधक रही माटी की
मैं कृषक माटी में ही बिखरता रहा !
कितनी ऊँची तुम्हारी हो अट्टालिका
मेरे माथे से ऊँची न हो पायेगी
जब भी खिड़की खुलेगी तुम्हारी कोई
खुशबू मेरे पसीने की ही आएगी
आया मधुमास जो भी तुम्हारे भवन
पहले चौखट से मेरी गुजरता रहा !
तुमने मंदिर रचा तुमने मस्जिद रची
खींच दी बीच में एक दीवार भी
जिसमें खिडकी झरोखा न कुछ भी रखा
करते एक दूसरे का जो दीदार भी
राम-अल्लाह दोनों मिले खेत में
उनका वरदान झोली में झरता रहा !
२७ मई ३०१३
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