ज़िंदगी की गंध
कब हँसे, रोए
कि रूठे, मन गए
दर्द सुख का
ज़िंदगी अनुबंध है!
काग़ज़ों की नाव पर
चढ़कर चले
कब घरौंदों में
हुआ साकार मन
रोशनी की टहनियाँ
कुछ रोपकर!
हो गए कितने बड़े
कितने मगन
चाँदनी में देखकर
परछाइयाँ लगा जैसे
जन्म का संबंध है!
वे सुनहरे दिन
कहीं क्या खो गए
द्वार पर उतरा
विपद् का कोहरा
छिन गए मुझसे
घरौंदों के सपन
रह गया बेबस
पिटा-सा मोहरा
आज क्या, कल क्या
कि बिगड़े तीन पन
इस तरह का
वक़्त का प्रतिबंध है!
भागकर जाऊँ
कहाँ जाऊँ- बता
हर तरफ़ से घेरती
सुधियाँ विकल
वह शहर, वह गाँव
गलियाँ, घर, डगर
खोजते हैं
रेत में बचपन सरल
फलक पर सब चित्र
धुँधे हो गए
शेष है,
वह ज़िंदगी की गंध है।
२६ अक्तूबर २००९ |