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अनुभूति में देवेंद्र आर्य की रचनाएँ-

नए गीत-
ज़िंदगी की गंध
रहूँगा भोर तक
बहुत अँधेरा है
शब्द की तलवार

गीतों में-
आशय बदल गया
इतना ज्ञान नहीं
किससे बात करें
तुम्हारे बिन
बात अब तो खत्म करिए
मन सूखे पौधे लगते हैं

अंजुमन में-
जीवन क्या है
 

  ज़िंदगी की गंध

कब हँसे, रोए
कि रूठे, मन गए
दर्द सुख का
ज़िंदगी अनुबंध है!

काग़ज़ों की नाव पर
चढ़कर चले
कब घरौंदों में
हुआ साकार मन
रोशनी की टहनियाँ
कुछ रोपकर!
हो गए कितने बड़े
कितने मगन

चाँदनी में देखकर
परछाइयाँ लगा जैसे
जन्म का संबंध है!
वे सुनहरे दिन
कहीं क्या खो गए
द्वार पर उतरा
विपद् का कोहरा
छिन गए मुझसे
घरौंदों के सपन
रह गया बेबस
पिटा-सा मोहरा

आज क्या, कल क्या
कि बिगड़े तीन पन
इस तरह का
वक़्त का प्रतिबंध है!

भागकर जाऊँ
कहाँ जाऊँ- बता
हर तरफ़ से घेरती
सुधियाँ विकल
वह शहर, वह गाँव
गलियाँ, घर, डगर
खोजते हैं
रेत में बचपन सरल

फलक पर सब चित्र
धुँधे हो गए
शेष है,
वह ज़िंदगी की गंध है।

२६ अक्तूबर २००९

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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