रहूँगा भोर तक
आँधियों ने वक़्त की
हर मोड़ पर बाँधा
मगर
प्राण का मणि दीप ले
मैं हूँ
रहूँगा भोर तक!
थकन हो
बेशक लिखा है
उम्र ने हर पृष्ठ पर
पर अभी अध्याय के
हर शब्द में है ज़िंदगी
तोड़कर भी
हर नया अनुभव
मुझे कहता गया
टूटकर उठना शिखर तक
आदमी की बंदगी
जगत के
इस मंच पर तो
रोज़ नागों ने डंसा
व्याल मर्दन हित चलूँगा
मैं
क्षितिज के छोर तक!
व्यर्थ है सोचें
किसी ने क्या दिया
कब, क्यों दिया
दंश हैं तो दंश के
सौ धर्म भी स्वीकार हैं
घेरता है चतुर्दिक से
जो अंधेरा, घेर ले
रोशनी हित
किरण की सौ शर्त भी
उपहार है
आत्मचेतन ज्योत्स्ना के
कर्म साधन के लिए
मैं शिराओं में लहू बनकर
दहूँगा पोर तक!
२६ अक्तूबर २००९ |