शब्द की तलवार
शब्द की तलवार लेकर मैं चला हूँ
हार के परिवेश ये मेरे नहीं हैं
युद्ध का जयघोष मेरे कंठ में है
आँसुओं के गीत ये मेरे नहीं हैं!
ठोकरें तो
हर कदम पर हैं
रहें भी
ज़िंदगी का काफ़िला
चलता रहेगा
अग्निधर्मा वाण
मेरे प्राण में हैं
चेतना का सिलसिला
ढलता रहेगा
हाथ में आयुध लिए सन्नद्ध हूँ मैं
लौटने वाले कदम मेरे नहीं हैं!
हर जगह तक्षक खड़े हैं
सिर उठाए
किंतु पौरुषहीन
नृप के आचरण हैं
व्याघ्र हैं
पर राजसत्ता के नशे में
चूमने में व्यस्त
गीदड़ के चरण हैं
एक जनमेजय लहू मैं जग रहा है
विषधरों-से मीत वे मेरे नहीं हैं!
सूर्य है
पर बादलों ने ढक लिया है
आज हम
जग के लिए उसको उबारें
तोड़ दें
मतभेद के ऊँचे कंगूरे
नेह का शृंगार कर
जम-मन सँवारें
मैं नए युग का सृजन लेकर चला हूँ
निरुत्साहित पंथ, वे मेरे नहीं हैं!
२६ अक्तूबर २००९ |