| अनुभूति में
                  शिवमंगल सिंह 'सुमन' की रचनाएँ- कविताओं में :अंगारे और धुआँ
 तूफ़ानों की ओर
 चलना हमारा काम है
 मेरा देश जल रहा
 विवशता
 सूनी साँझ
 संकलन में-वर्षा मंगल - 
                  मैं अकेला और पानी बरसता है
 प्रेमगीत - आँखें 
                  नहीं भरी
 गुच्छे भर अमलतास- 
                  चल रही उसकी कुदाली
 ज्योतिपर्व-
                  मृत्तिका 
                  दीप
 
                    |  | मेरा देश जल रहा 
                  घर-आँगन सब आग लग रहीसुलग रहे वन-उपवन
 दर-दीवारें चटख रही हैं
 जलते छप्पर-छाजन
 तन जलता है, मन जलता हैजलत जन-घन-जीवन
 एक नहीं जलते सदियों से
 जकड़े गर्हित बन्धन।
 दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगाने वाला
 मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।
 भाई की गर्दन परभाई का तन गया दुधारा
 सब झगड़े की जड़ है
 पुरखों के घर का बँटवारा
 एक अकड़ कर कहता
 अपने मन का हक ले लेंगे
 और दूसरा कहता
 तिल भर भूमि न बँटने देंगे
 पंच बना बैठा है घर में, फूट डालने वाला
 मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।
 दोनों के नेतागण बनते अधिकारों के हामी
 किन्तु एक दिन को भी
 हमको अखरी नहीं गुलामी
 दोनों को मोहताज हो गए
 दर-दर बने भिखारी
 भूख, अकाल, महामारी से
 दोनों की लाचारी
 आज धार्मिक बना, धर्म का नाम मिटाने वाला
 मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।
 होकर बड़े लड़ेंगे योंयदि कहीं जान मैं लेती
 कुल - कलंक - संतान
 सौर में गला घोंट मैं देती
 लोग निपूती कहते पर
 यह दिन न देखना पड़ता
 मैं न बँधनों में सड़ती
 छाती में शूल न गड़ता
 बैठी यही बिसूर रही माँ, नीचों ने धर घाला
 मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।
 भगतसिंह अशफाक,लालमोहन, गणेश बलिदानी
 सोच रहे होंगे हम सब की
 व्यर्थ गई कुरबानी
 जिस धरती को तन की
 देकर खाद, खून से सींचा
 अंकुर लेते समय, उसी पर
 किसने जहर उलीचा
 हरी भरी खेती पर ओले गिरे, पड़ गया पाला
 मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।
 
 जब भूखा बंगाल, तड़प
 मर गया ठोंक कर किस्मत
 बीच हाट में बिकी
 तुम्हारी माँ-बहनों की अस्मत
 जब कुत्तों की मौत मर गए
 बिलख-बिलख नर-नारी
 कहाँ गई थी भाग उस समय
 मरदानगी तुम्हारी
 तब अन्याय का गढ़ तुमने क्यों न चूर कर डाला
 मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।
 पुरखों का अभिमान तुम्हाराऔर वीरता देखी,
 राम-मुहम्मद की सन्तानो
 व्यर्थ न मारो शेखी,
 सर्वनाश की लपटों में
 सुख-शान्ति झोंकने वालो
 भोले बच्चों, अबलाओं के
 छुरा भोंकने वालो
 ऐसी बर्बरता का इतिहासों में नहीं हवाला
 मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।
 घर-घर माँ की कलखपिता की आह, बहन का क्रन्दन
 हाय, दुधमुँहे बच्चे भी
 हो गए तुम्हारे दुश्मन?
 इस दिन की खातिर ही थी
 शमशीर तुम्हारी प्यासी?
 मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी
 रहे न भारतवासी।
 हँसते हैं सब देख गुलामों का यह ढंग निराला
 मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।
 जाति - धर्म - गृह-हीनयुगों का नंगा-भूखा-प्यासा
 आज सर्वहारा तू ही है
 एक हमारी आशा
 ये छल-छंद शोषकों के हैं
 कुत्सित, ओछे, गन्दे
 तेरा खून चूसने को ही
 ये दंगों के फन्दे
 तेरा एका, गुमराहों को राह दिखाने वाला
 मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।
 ('विश्वास बढ़ता ही गया' से) |