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वर्षा महोत्सव |
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वर्षा मंगल
संकलन |
मैं अकेला और पानी बरसता है |
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मैं अकेला और पानी बरसता है
प्रीती पनिहारिन गई लूटी कहीं है,
गगन की गगरी भरी फूटी कहीं है,
एक हफ्ते से झड़ी टूटी नहीं है,
संगिनी फिर यक्ष की छूटी कहीं है,
फिर किसी अलकापुरी के शून्य नभ में
कामनाओं का अँधेरा सिहरता है।
मोर काम-विभोर गाने लगा गाना,
विधुर झिल्ली ने नया छेड़ा तराना,
निर्झरों की केलि का भी क्या ठिकाना,
सरि-सरोवर में उमंगों का उठाना,
मुखर हरियाली धरा पर छा गई जो
यह तुम्हारे ही हृदय की सरसता है।
हरहराते पात तन का थरथराना,
रिमझिमाती रात मन का गुनगुनाना,
क्या बनाऊँ मैं भला तुमसे बहाना,
भेद पी की कामना का आज जाना,
क्यों युगों से प्यास का उल्लास साधे
भरे भादों में पपीहा तरसता है।
मैं अकेला और पानी बरसता है।
- शिवमंगल सिंह 'सुमन'
06 सितंबर 2001
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विरह गीत
अनवरत आँसुओं की झड़ी लग गई
गंगा जमुना हमारे नयन हो गए
अब ये बरखा ये सावन के झूले सजन
सब खुली आँख के से सपन हो गए
आस की मेहँदी जब अन रची रह गई
गीत बिन ब्याही दुल्हन से लगने लगे
और उम्मीदों की पायल के घुंघरू सभी
टूटते-टूटते अब बिखरने लगे
छंद के बंद मन में ही घुटने लगे
भाव उठ भी न पाए दफ़न हो गए
बारिशों में भी तन मन झुलसने लगा
हम को परदेस खुद घर की चौखट हुई
चौंक कर गहरी नींदों से हम उठ गए
जब भी दहलीज़ पर कोई आहट हुई
चाह के पंख थक-थक के बोझिल हुए
मन के अरमाँ हमारे गगन हो गए
रात दिन बदलियाँ तो बरसतीं रहीं
चातकी प्यास पर अनबुझी रह गई
कोई माँझी न उस पार पहुँचा सका
किश्तियाँ घाट पर ही बँधी रह गईं
सहमे-सहमे हुए हम सुलगते रहे
गीली लकड़ी के जैसे हवन हो गए
- आर.सी.शर्मा 'आरसी'
31 अगस्त 2005
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