| अंगारे और धुआँ 
                  इतने पलाश क्यों फूट पड़े है एक 
                  साथइनको समेटने को इतने आँचल भी तो चाहिए,
 ऐसी कतार लौ की दिन-रात जलेगी जो
 किस-किस की पुतली से क्या-क्या कहिए।
 क्या आग लग गई है पानी मेंडालों पर प्यासी मीनों की भीड़ लग गई है,
 नाहक इतनी भूबरि धरती ने उलची है
 फागुन के स्वर को भीड़ लग गई है।
 अवकाश कभी था इनकी कलियाँ 
                  चुन-चुन करहोली की चोली रसमय करने का
 सारे पहाड़ की जलन घोल
 अनजानी डगरों में बगरी पिचकारी भरने का।
 अब ऐसी दौड़ा-धूपी मेंखिलना बेमतलब है,
 इस तरह खुले वीरानों में
 मिलना बेमतलब है।
 अब चाहूँ भी तो क्या रुककररस में मिल सकता हूँ?
 चलती गाड़ी से बिखरे-
 अंगारे गिन सकता हूँ।
 अब तो काफी हाऊस मेंरस की वर्षा होती है
 प्यालों के प्रतिबिंबों में
 पुलक अमर्षा होती है।
 टेबिल-टेबिल पर टेसू केदल पर दल खिलते हैं
 दिन भर के खोए क्षण
 क्षण भर डालों पर मिलते हैं।
 पत्ते अब भी झरते परकलियाँ धुआँ हो गई हैं
 अंगारों की ग्रंथियाँ
 हवा में हवा हो गई हैं।
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