बहुत दिनों पर
मैं तो बहुत दिनों पर चेता।
श्रम कर ऊबा
श्रम कण डूबा
सागर को खेना था मुझको रहा शिखर को खेता।
मैं तो बहुत दिनों पर चेता।
थी मत मारी
था भ्रम भारी
ऊपर अम्बर गर्दीला था नीचे भँवर लपेटा।
मैं तो बहुत दिनों पर चेता।
यह किसका स्वर
भीतर बाहर
कौन निराशा कुंठित घडियों में मेरी सुधि लेता ।
मैं तो बहुत दिनों पर चेता।
मत पछता रे
खेता जा रे
अन्तिम क्षण में चेत जाय जो वह भी सत्वर चेता।
मैं तो बहुत दिनों पर चेता। |