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आत्मदीप
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मुझे न अपने से कुछ प्यार
मिट्टी का हूँ छोटा दीपक
ज्योति चाहती दुनिया जबतक
मेरी, जल-जल कर मैं उसको देने को तैयार
पर यदि मेरी लौ के द्वार
दुनिया की आँखों को निद्रित
चकाचौध करते हों छिद्रित
मुझे बुझा दे बुझ जाने से मुझे नहीं इंकार
केवल इतना ले वह जान
मिट्टी के दीपों के अंतर
मुझमें दिया प्रकृति ने है कर
मैं सजीव दीपक हूँ मुझ में भरा हुआ है मान
पहले कर ले खूब विचार
तब वह मुझ पर हाथ बढ़ाए
कहीं न पीछे से पछताए
बुझा मुझे फिर जला सकेगी नहीं दूसरी बार
- हरिवंश राय बच्चन
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नन्हा दीपक
तिमिर मिटाये नन्हा दीपक
साथ लिए आशा की ज्वाला,
आभा ऐसे फैल रही हैं
धरती अंबर हुआ उजाला
स्वर्णदीप से सजी रंगोली
सुंदरता बिखराती जाए
अँधकार से लड़ कर पग-पग
हमें हमारी राह दिखाए
स्नेह दीप से रोशन हर मन
हर घर मंदिर का हर कोना
अपनापन हर आँगन-आँगन
हर अंजुरी में प्यार का सोना
मेल मिलाप से रौनक दुनिया
खिला-खिला-सा लगे चमन
नन्हा दीपक जले रात भर
इस दीपक को सतत नमन
-संध्या
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