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अनुभूति में डा. सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' की रचनाएँ

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  सड़क पर पर्यावरण देवी

भोर की पोर
नयनों की कजरी
बन गयी चकोर।
करों में लिए झाड़ू,
कमर में पहने कमरबन्द
हाथ पर पति नाम छन्द
पीठ पर फूलों का गोदना।
नाक और नयनों की भौंवों पर छल्ला।

झुकी हुई टहनी
लहंगे में लिपटा चाँद
चोली में बदली,
बदली में चाँदनी,
धूल में बहारते बिखर गई।
चाँदनी मध्य मुक्त उरोजी तरुणाई
मौसम को कर गई चित,
पंडित जी के नयनों से चुरा लिया सुरमा,
ऊँचाई को लाँघ गई गरिमा।
उन्होंने काट लिए अपने होंठ,
संकोच, कर गई हृदय में चोट।

मन्दिर जाते हुए
मिल गई बहारते पर्यावरण चाँदनी,
सड़क पर मिल गई देवी,
छूट गया पानी से भरा लोटा,
पर्यावरण देवी के लगा चरण धोने।
पंडित जी ने चुराई दृष्टि
उनके आदर्श की बौनी हुई सृष्टि
सौन्दर्य बोध से धूल कसमसाई।
कजरी देख पंडित जी को
लेती अंगड़ाई
झाड़ती झाड़ू पास आई
उनके गले में स्वर अटक गए
अपने ही बनाए जातपात कोढ़ से लद गए।
प्रेम रोगी जात-पात में बट गए।
अजन्ता की तराशी,
लखनऊ की नक्काशी

चाँदनी चौक में गोतेदार झालरें
चौक की फूलवाली गली के
गुमसुन गाने याद आने लगे।

पाकीजा अपनी ही देहरी से फिसल गई,
अपनी बाँहों को कोसते रहे,
भर नहीं सके चुल्लू भर पानी,
गंगा समीप ही बहती रही।
यह सौन्दर्य है, हाँ मन मन्दिर है,
उसे देख सकते हो, छू नहीं सकते।

३ अगस्त २००९

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