सूखे पोखर, सूखी धरती,
जेठ की झुलसी बयार,
लागे ना जियरा हमार,
आई बरखा बहार,
ना आए सजनवा हमार।
बरखा की लेकर बारात,
डोली उठाए मेघा कहार,
बदरा गरजे बिजुरी चमके,
रिमझिम-रिमझिम फुहार,
दादुर लगाए गुहार।
विदाई की आई घड़ी
बौछारें दुआरे खड़ीं
कोछे देकर चाउर चबेना
फूलों सी बरसे लड़ी
सजना जिया डोले बार-बार।
सावन आया तुम ना आए
सखियाँ झूलें ले ले हिंडोले
आसमाँ तक पैंगा लगावें
कोयल पपीहा तंजि-तंजि बोलें
सखियाँ कोसें बार-बार।
मेरे रंग रसिया
लौट आ परदेसिया
गाँव टोला समझि रहे
रउरे के महरिया
कबतक करूँ इंतज़ार।
आयी बरखा बहार,
ना आये सजनवा हमार।
- शरद आलोक
5 सितंबर 2001
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