|
धन्य भारतीय संस्कृति अपनी,
प्रेम बहुत अधिकार नहीं है।
विकास, भला सबका चाहे जो,
ऐसा दावेदार नहीं हैं।।
छुआछूत का भाव न रखती,
धर्मों का सत्कार यहीं है।
ज्ञान भक्ति कर्मों का प्रांगण
मेरा चारों धाम यही है।।
जहाँ गंगा-जमुना सरस्वती
बहती हैं जिसके आँगन में।
तीन ओर सागर लहराता
अडिग हिमालय प्रांगण में।।
जग में ऊँचा रहे तिरंगा,
भारत माँ का मान यही है।
जय-जय भारत देश हमारा,
मेरा जीवन प्राण यही है।।
दूर देश में रहकर भी जो,
राष्ट्र एकता प्रेम नहीं हैं।
लानत ऐसे जीवन को है
वह सच्चा भारत वीर नहीं है।।
- शरद आलोक |